*हाइकु में मानसिक बोधगम्य बिंब*
अब तक हमने जान लिया है केवल 5-7-5 क्रम में शब्दों को तोड़ कर तीन पँक्ति मात्र में लिख लेना ही हाइकु नहीं है। केवल तीन पँक्ति में वाक्य को तोड़ कर लिख देना या फिर अपनी कल्पना का प्रयोग करना हाइकु में वर्जित है।
इसका सीधा सा सपाट कारण यह है कि आप के पास वर्णों की संख्या कम है ऐसे में आपके कल्पना की उड़ान बहुत सीमित हो जाती है। यदि कल्पना की उड़ान भरनी ही है तो हिंदी साहित्य की विपुल संपदा में अनेक विधाएँ हैं जो आपके कल्पना को लंबी उड़ान दे सकते हैं। अनेक छंद भरे हुए हैं जिसमें आप रस, अलंकार, मानवीकरण के माध्यम से अपने भावों को उकेर सकते हैं। वैसे भी भारतीय कवि इस नाम से प्रसिद्ध हैं कि जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।
हाइकु यथार्थ लेखन की विधा है जिसमें कल्पना की स्वतंत्रता लेखक को नहीं है बल्कि यह स्वतंत्रता पाठक को है।
इसी क्रम में हाइकु में मानसिक बोधगम्य विषयों को स्वीकार किया गया है। मानसिक बोधगम्य का अर्थ वे विषय जो हम अपने बुद्धि से अनुभव कर जान सकें परंतु इसका अर्थ कतई कल्पना नहीं है। उदाहरण के तौर पर कुछ वस्तुएँ इस प्रकार रखी हुई हैं कि उन्हें एक आभासी रेखा से मिलाएँ तो 'अ' बनता है तो यह हमने मानसिक बोधगम्य से जाना कि वहाँ 'अ' लिखा है। यहाँ पर ध्यान दें कि न तो 'अ" अक्षर कल्पना है और न ही उन वस्तुओं की स्थिति ही कल्पना है। इसी प्रकार कोई भी ऋतुसूचक शब्द हाइकु में मानसिक बोधगम्य का विषय है। जैसे भादो या श्रावण का अर्थ है कि इसके माहौल को, इसके वातावरण को, उस समय की जलवायु को पाठक स्वतः ही अपनी बुद्धि से जान सकता है, अनुभव कर सकता है। ऐसा हाइकु कीगो कहलाता है।
*श्री नरेश जगत* जी की इन दो रचनाओं में मानसिक बोधगम्य बिंब का बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया गया है।
सब्जी महक~
रसोई से निकली
बिल्ली आहट
हाइकुकार - नरेश 'जगत'
इसकी समीक्षा करते हुए *श्री संजय कौशिक 'विज्ञात'* जी लिखते हैं-
प्रथम बिम्ब *सब्जी महक* को इंद्रियबोधगम्य बिम्ब से लिया गया है। यह कौन सा सब्जी है ये दूसरे बिम्ब *रसोई से निकली बिल्ली आहट* से स्पष्ट होता है कि कोई दूध-दही या घी के अत्याधिक मिश्रण से बनी हुई सब्जी (संभवतया हरा-साग) ही होगी, इसीलिए बिल्ली रसोई तक पहुँची। जिसे पाठक अपने स्वरुचि से बिम्ब मान सकता है इस रचना का मुख्य आकर्षण यह स्पष्ट है कि इस की समझ और सूझ-बूझ पाठक वर्ग की स्वतंत्रता रखी गयी है । अतः यह कृति मानसिक बोधगम्य बिम्ब आधारित है।
इसमें एक विशेष बात यह है कि *सब्जी महक रसोई से निकली* और *रसोई से निकली बिल्ली आहट* , दोनों बिम्ब इस तरह सजे हुए हैं कि प्रथम और द्वितीय पंक्ति में सामान्य बात रखी लगती है, लेकिन द्वितीय बिम्ब के आने से रचना के भाव की गहराई देखते ही बनती है। जिसके परिवर्तित होने से दोनों बिम्ब स्पष्ट हो जाते हैं। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है पाठक वर्ग और प्रान्त परिवर्तन से सब्जी के उच्चारण में कुछ अंतर नहीं हो सकता यह अवश्य हो सकता है कुल मिला कर अपने उद्देश्य को पूर्ण करती हुई अतः इस रचना का इन्द्रीयबोधगम्य बिम्ब की श्रेणी में होना तर्क संगत है
*संजय कौशिक 'विज्ञात'*
दूसरी रचना -
बाजू देख के
श्यामा कंधा हिलायी~
पुष्प उद्यान/प्रेमी दिवस।
हाइकुकार - नरेश 'जगत'
*बाजू देख के श्यामा कंधा हिलायी~*
इस रचना के प्रथम बिम्ब में एक विशेष क्षण केंद्रित है, जिसे एक पल की अनुकृति में सम्मिलित किया गया है। इस बिम्ब में दृश्य उभर कर स्पष्ट करता है कि उसके बगल में ओर कोई उपस्थित है। जिसे देखकर वह युवती अपने कंधे हिला कर इशारे की भाषा में कुछ कह गयी है, इस इशारे की भाषा को उनका कोई विशेष परिचित व्यक्ति ही समझ सकता है कि वह क्या कह कर गयी है। इस रचना में पाठक की परिस्थिती और उसके विवेक के अनुरुप बिम्ब अनेक चित्र प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। अतः यह बिम्ब स्वतंत्रता पूर्वक सशक्त इंगित करता हैं, स्पष्टीकरण की समझ को भी सृजकार द्वारा पाठक वर्ग पर छोड़ दिया गया है। क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के सम्भव हैं, और लिंग की भिन्नता के साथ बिम्ब में भिन्नता प्राप्त जा सकती है। जो इस रचना का सौंदर्य पक्ष है। अतः इस रचना को बिम्ब की दृष्टि से मानसिक बोधगम्य बिम्ब की श्रेणी में कहना तर्क संगत है।
*संजय कौशिक 'विज्ञात'*
श्री विज्ञात जी की एक कृति पर मेरी समीक्षा निम्नवत है-
कानन पथ~
जुगनूओं की आभा
झाड़ी रूप में।
हाइकुकार - संजय कौशिक 'विज्ञात'
*कानन पथ~*
कानन पथ एक पूर्ण प्राकृतिक बिंब है।
*जुगनुओं की आभा झाड़ी रूप में*
बहुत सारे जुगनु एक झाड़ी में हैं जिससे उनकी आभा से घने अंधकार में भी झाड़ी की आकृति का पूर्णतः आभास हो रहा है। अंधकार में जुगनुओं की टिमटिमाहट एक वाह का पल निर्मित कर रहा है। जुगनुओं की आभा से झाड़ी की आकृति बनना यह मानसिक बोधगम्य की श्रेणी में आता है।
*मानसिक बोधगम्य:*
जब झाड़ी पर बहुत अधिक जुगनु हों तो झाड़ी का खाका जुगनु की आभा से बनता है। चूँकि जंगल का पथ है अर्थात घना अंधेरा ऐसे में कुछ भी न दिखेगा सिवाय जुगनु की टिमटिमाहट के अलावा। उस टिमटिमाहट से झाड़ी का खाका बनेगा। यह झाड़ी ही है *मानसिक बोधगम्य* से लेखक जान पा रहा है अन्यथा अंधकार इतना घना है कि कुछ भी नहीं दिख रहा।
इस प्रकार अंत में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानसिक बोधगम्य बिंब के समावेश से हाइकु को बहुत रोचक बनाया जा सकता है तथा पाठक की कल्पना के लिए अपार संभावनाएं बचती हैं। पुनश्चः एक बार कहना आवश्यक है कि हाइकु पाठक की विधा है अर्थात इसमें कल्पना की स्वतंत्रता लेखक को नहीं बल्कि पाठक को है।
लेखक-
अनंत पुरोहित 'अनंत'
हाइकु को बेहतरीन और सरल तरीके से समझने का उत्तम राह निकाला आपने आ.अनंत जी, बहुत-बहुत बधाई हो 💐🌷🌸🌹👏👏👏
ReplyDeleteवाह बहुत ही बेहतरीन तरीके से अपने हाइकु के रूप को भी समझा दिया।हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं अनंत जी 💐💐👏👏
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी आपने नव रचनाकारों को हाइकु के विषय में अपने इस लेख के जरिये दी है।हाइकु को सहज, सरल बनाता शानदार लेख।👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी और उम्दा उदाहरण .
ReplyDeleteवाह!!!