Thursday 30 January 2020

हाइकु मंथन

*हाइकु में मानसिक बोधगम्य बिंब*

अब तक हमने जान लिया है केवल 5-7-5 क्रम में शब्दों को तोड़ कर तीन पँक्ति मात्र में लिख लेना ही हाइकु नहीं है। केवल तीन पँक्ति में वाक्य को तोड़ कर लिख देना या फिर अपनी कल्पना का प्रयोग करना हाइकु में वर्जित है। 

इसका सीधा सा सपाट कारण यह है कि आप के पास वर्णों की संख्या कम है ऐसे में आपके कल्पना की उड़ान बहुत सीमित हो जाती है। यदि कल्पना की उड़ान  भरनी ही है तो हिंदी साहित्य की विपुल संपदा में अनेक विधाएँ हैं जो आपके कल्पना को लंबी उड़ान दे सकते हैं। अनेक छंद भरे हुए हैं जिसमें आप रस, अलंकार, मानवीकरण के माध्यम से अपने भावों को उकेर सकते हैं। वैसे भी भारतीय कवि इस नाम से प्रसिद्ध हैं कि जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।

हाइकु यथार्थ लेखन की विधा है जिसमें कल्पना की स्वतंत्रता लेखक को नहीं है बल्कि यह स्वतंत्रता पाठक को है।

इसी क्रम में हाइकु में मानसिक बोधगम्य विषयों को स्वीकार किया गया है। मानसिक बोधगम्य का अर्थ वे विषय जो हम अपने बुद्धि से अनुभव कर जान सकें परंतु इसका अर्थ कतई कल्पना नहीं है। उदाहरण के तौर पर कुछ वस्तुएँ इस प्रकार रखी हुई हैं कि उन्हें एक आभासी रेखा से मिलाएँ तो 'अ' बनता है तो यह हमने मानसिक बोधगम्य से जाना कि वहाँ 'अ' लिखा है। यहाँ पर ध्यान दें कि न तो 'अ" अक्षर कल्पना है और न ही उन वस्तुओं की स्थिति ही कल्पना है। इसी प्रकार कोई भी ऋतुसूचक शब्द हाइकु में मानसिक बोधगम्य का विषय है। जैसे भादो या श्रावण का अर्थ है कि इसके माहौल को, इसके वातावरण को, उस समय की जलवायु को पाठक स्वतः ही अपनी बुद्धि से जान सकता है, अनुभव कर सकता है। ऐसा हाइकु कीगो कहलाता है।

*श्री नरेश जगत* जी की इन दो रचनाओं में मानसिक बोधगम्य बिंब का बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया गया है।

सब्जी महक~
रसोई से निकली
बिल्ली आहट
  हाइकुकार - नरेश 'जगत'

इसकी समीक्षा करते हुए *श्री संजय कौशिक 'विज्ञात'* जी लिखते हैं-
प्रथम बिम्ब *सब्जी महक* को इंद्रियबोधगम्य बिम्ब से लिया गया है। यह कौन सा सब्जी है ये दूसरे बिम्ब *रसोई से निकली बिल्ली आहट* से स्पष्ट होता है कि कोई दूध-दही या घी के अत्याधिक मिश्रण से बनी हुई सब्जी (संभवतया हरा-साग) ही होगी, इसीलिए बिल्ली रसोई तक पहुँची। जिसे पाठक अपने स्वरुचि से बिम्ब मान सकता है इस रचना का मुख्य आकर्षण यह स्पष्ट है कि इस की समझ और सूझ-बूझ पाठक वर्ग की स्वतंत्रता रखी गयी है । अतः यह कृति मानसिक बोधगम्य बिम्ब आधारित है। 
इसमें एक विशेष बात यह है कि *सब्जी महक रसोई से निकली* और *रसोई से निकली बिल्ली आहट* , दोनों बिम्ब इस तरह सजे हुए हैं कि प्रथम और द्वितीय पंक्ति में सामान्य बात रखी लगती है, लेकिन द्वितीय बिम्ब के आने से रचना के भाव की गहराई देखते ही बनती है। जिसके परिवर्तित होने से दोनों बिम्ब स्पष्ट हो जाते हैं। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है पाठक वर्ग और प्रान्त परिवर्तन से सब्जी के उच्चारण में कुछ अंतर नहीं हो सकता यह अवश्य हो सकता है कुल मिला कर अपने उद्देश्य को पूर्ण करती हुई अतः इस रचना का इन्द्रीयबोधगम्य बिम्ब की श्रेणी में होना तर्क संगत है 

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

दूसरी रचना -
बाजू देख के
श्यामा कंधा हिलायी~
पुष्प उद्यान/प्रेमी दिवस।
हाइकुकार - नरेश 'जगत'   

*बाजू देख के श्यामा कंधा हिलायी~*
इस रचना के प्रथम बिम्ब में एक विशेष क्षण केंद्रित है, जिसे एक पल की अनुकृति में सम्मिलित किया गया है। इस बिम्ब में दृश्य उभर कर स्पष्ट करता है कि उसके बगल में ओर कोई उपस्थित है। जिसे देखकर वह युवती अपने कंधे हिला कर इशारे की भाषा में कुछ कह गयी है, इस इशारे की भाषा को उनका कोई विशेष परिचित व्यक्ति ही समझ सकता है कि वह क्या कह कर गयी है। इस रचना में पाठक की परिस्थिती और उसके विवेक के अनुरुप बिम्ब अनेक चित्र प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। अतः यह बिम्ब स्वतंत्रता पूर्वक सशक्त इंगित करता हैं, स्पष्टीकरण की समझ को भी सृजकार द्वारा पाठक वर्ग पर छोड़ दिया गया है। क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के सम्भव हैं, और लिंग की भिन्नता के साथ बिम्ब में भिन्नता प्राप्त जा सकती है। जो इस रचना का सौंदर्य पक्ष है। अतः इस रचना को बिम्ब की दृष्टि से मानसिक बोधगम्य बिम्ब की श्रेणी में कहना तर्क संगत है।

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

श्री विज्ञात जी की एक कृति पर मेरी समीक्षा निम्नवत है-

कानन पथ~
जुगनूओं की आभा
झाड़ी रूप में।
हाइकुकार - संजय कौशिक 'विज्ञात'

*कानन पथ~*
कानन पथ एक पूर्ण प्राकृतिक बिंब है।
*जुगनुओं की आभा झाड़ी रूप में*
बहुत सारे जुगनु एक झाड़ी में हैं जिससे उनकी आभा से घने अंधकार में भी झाड़ी की आकृति का पूर्णतः आभास हो रहा है। अंधकार में जुगनुओं की टिमटिमाहट एक वाह का पल निर्मित कर रहा है। जुगनुओं की आभा से झाड़ी की आकृति बनना यह मानसिक बोधगम्य की श्रेणी में आता है।
*मानसिक बोधगम्य:*
जब झाड़ी पर बहुत अधिक जुगनु हों तो झाड़ी का खाका जुगनु की आभा से बनता है। चूँकि जंगल का पथ है अर्थात घना अंधेरा ऐसे में कुछ भी न दिखेगा सिवाय जुगनु की टिमटिमाहट के अलावा। उस टिमटिमाहट से झाड़ी का खाका बनेगा। यह झाड़ी ही है *मानसिक बोधगम्य* से लेखक जान पा रहा है अन्यथा अंधकार इतना घना है कि कुछ भी नहीं दिख रहा।

इस प्रकार अंत में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानसिक बोधगम्य बिंब के समावेश से हाइकु को बहुत रोचक बनाया जा सकता है तथा पाठक की कल्पना के लिए अपार संभावनाएं बचती हैं। पुनश्चः एक बार कहना आवश्यक है कि हाइकु पाठक की विधा है अर्थात इसमें कल्पना की स्वतंत्रता लेखक को नहीं बल्कि पाठक को है।

लेखक-
अनंत पुरोहित 'अनंत'

Tuesday 21 January 2020

आ. अनुपमा अग्रवाल जी के शब्दों से हाइकु...

        आज के आपाधापी के युग में मानव की भावनाओं का भी मशीनीकरण हो गया है। आज मानव के पास स्वयं के लिए समय ही नहीं है, बस मशीन की तरह भागती-दौड़ती सी जिंदगी मानव जी रहा है। ऐसे में मानव के पास स्वयं के मनोरंजन के लिए भी समय निकाल पाना असंभव सा हो गया है और मशीनीकरण के इस युग में आज बड़ी-बड़ी मोटी-मोटी पुस्तकों का महत्व भी कम होता जा रहा है। आज मानव सीमित समय में मनोरंजन प्राप्त करने के संसाधनों की तलाश कर रहा है। मानव की इसी सोच का परिणाम है--- 'हाइकु'
                         समय-समय पर साहित्यकार अलग अलग माध्यमों से जनमानस का मनोरंजन करते रहे हैं। छायावादी युग से ही कविताओं में लघुता की प्रवृत्ति परिलक्षित होने लगी थी। जिसके परिणाम स्वरूप स्वतंत्रता के पश्चात् मिनी कविता, सीपिका, क्षणिका, कणिका व कैप्सूल कविता आदि का जन्म हुआ। मानव की इसी खोज के परिणाम स्वरूप, इसी सोच के परिणाम स्वरूप जापानी साहित्य के संसर्ग  से एक नई विधा का जन्म हुआ--- जिसका नाम है---'हाइकु'।
       लेकिन हाइकु केवल मनोरंजन के लिए नहीं है।अपितु इसके जरिये हम अपनी संस्कृति से जुड़ते हैं।

                क्रमशः 5, 7, 5 वर्णों की त्रिपदी में अपने भावों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है हाइकु।
 हाइकु 'गागर में सागर' भरने जैसा है। मात्र 17 वर्णों में पूरी कविता समाहित किए हुए होता है हाइकु। अभी जब हम हाइकु की बात कर रहे हैं तो सर्वप्रथम मन में एक विचार आता है कि, हाइकु की उत्पत्ति कहाँ, कब और कैसे हुई?

                    हाइकु की उत्पत्ति जापान में हुई। जापानी साहित्य में मुरोमुचि युग (1335 - 1573 ई.) में आशु कविता प्रतियोगिता में एक व्यक्ति 3 पंक्तियों की रचना करके छोड़ देता था तथा शेष 3 पंक्तियों को दूसरा व्यक्ति पूर्ण करता था जिसे 'रेंगा' कहा जाता था। 'रेंगा' में हास्य व्यंग प्रधान रचनाओं को 'हाइकाइ' के नाम से जाना जाता था।
           धीरे धीरे 'हाइकाइ' का स्वरूप बदलने लगा और उसमें गंभीर भावों  का भी समावेश स्वतंत्र रूप से होने लगा और फिर वही 'हाइकाइ' 'हाइकु' के नाम से प्रचलित हुआ।

      जापानी साहित्य की अन्य विधाओं में ताँका, सेदोका, चोका और सैनर्यु आदि में सबसे अधिक 'हाइकु' प्रचलित विधा है।

           'हाइकु' का जन्म पंद्रहवीं- सोलहवीं शताब्दी के आसपास हुआ है। इसके जन्मदाता सोगान (1465-1553 ई.) और मोरिताके (1472-1549 ई.) थे।

     'हाइकु' को अनेक कवियों ने परिभाषित किया है जैसे---
          संत कवि बाशो के शब्दों में----- "हाइकु दैनिक जीवन में अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति है। पर वह सत्य एक विराट सत्य का अंश होना चाहिए।"
      त्सुरायुकि के अनुसार---- "जापानी कविता बीज रूप में मनुष्य के हृदय में प्रस्फुटित होकर शब्दों की असंख्य कोपलों  में फूट निकलती है---- वस्तुओं  से  जगत में मनुष्य अपने नेत्रों और श्रवणेंद्रियों द्वारा प्रभाव ग्रहण करता है।"
          ओत्सुजि के अनुसार--- "निरपेक्ष स्थिति में पहुंचकर जब कवि के हृदय में गीत स्वतः फूट पड़ता है तभी वह एक सफल हाइकु की रचना में समर्थ होता है।" 
डॉक्टर सत्य भूषण के अनुसार-- "हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है।"
 प्रोफेसर डॉ. आदित्य प्रताप सिंह के अनुसार---- "हाइकु मनुष्य के सजीव फेंफड़ों की कविता है, ख्यालों की नहीं।"
इन महान रचनाकारों के वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि हाइकु में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है। हाइकु एक बिंब आधारित कृति है अर्थात् जो दृश्य हमारी आँखें देख रही हैं वही दृश्य हम अपने हाइकु के माध्यम से पाठक को दिखाने में यदि सफल हैं तो यह एक अच्छे हाइकुकार की निशानी है और हाइकु लेखन की सफलता।
दृश्य अर्थात् देखना यानि दर्शन---
उपनिषद में कहा गया है---
"दृश्यते अनेन इति दर्शनम्।"
अर्थात् जिससे देखा जाये अथवा सत्य के दर्शन किये जायें वह दर्शन है।यानि कि जिस वस्तु या बिंब को देखा गया, उसकी सटीक विवेचना ही हाइकु है।
         
हाइकु एक प्रकृति आधारित विधा है।इसमें प्राकृतिक बिंब का होना अनिवार्य है।एक बिंब प्राकृतिक हो और दूसरा बिंब प्रथम बिंब को पूर्णता प्रदान करता हो। 
प्रथम बिंब पाँच वर्ण का होना चाहिए तथा द्वितीय  बिंब बारह वर्ण का जो क्रमशः सात और पाँच वर्ण की दो पंक्तियों में विभक्त किया गया हो।हाइकु ऐसा हो जिसे पढ़ते ही पाठक के मुख से आह! या वाह! निकल उठे,अर्थात् हाइकु में आह या वाह के पल भरपूर होने चाहिए।आईये अब इस विधा को एक उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।......

श्रावण अंत~
कागजी नाव पर
राखी व टाॅफी।

हाइकुकार---

अनुपमा अग्रवाल 

अब इस कृति में प्रथम बिंब है....
श्रावण अंत----
जो एक समयसूचक शब्द है----
इस तरह के समयसूचक या ऋतुसूचक शब्दों को 'कीगो' कहा जाता है एवं 'कीगो' का प्रयोग रचना को सौंदर्य प्रदान करता है।
श्रावण अंत से पाठक के मन में छवि बनती है श्रावण मास के अंतिम दिन की....जिस दिन रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है परन्तु हमने अपनी कृति में कारण फल के दोष से बचने के लिए रक्षाबंधन के स्थान पर श्रावण अंत का प्रयोग किया है।
        अब देखते हैं दूसरा बिंब-----
कागजी नाव पर राखी व टाॅफी----
जिसे हमने दो भागों में विभक्त किया----

कागजी नाव पर
राखी व टाॅफी----ये दोनों वाक्य अपने आप में पूर्ण हैं और इन्हें संयोजक शब्द में से जोड़ा गया है।
अब इस वाक्य का अर्थ पाठक अपने हिसाब से निकालेगा और यही हाइकु की सुन्दरता है।
किसी पाठक को लग सकता है कि बारिश  का मौसम है और बच्चे खेल रहे हैं इसलिए कागज की नाव पर राखी व टाॅफी रखे हुए हैं----जिसमें भरपूर वाह के पल हैं ।
वहीं दूसरी ओर किसी पाठक को ये भी लग सकता है कि एक गरीब बच्ची को उसके माता-पिता ने विवशतावश बेच दिया है और उसे खरीदने वाले लोग उस पर अत्याचार करते हैं और उसे अपने भाई से मिलने नहीं जाने दे रहे अतः वह कागज की नाव पर रखकर राखी व टाॅफी अपने भाई तक पहुंचाने का प्रयास कर रही है।यहाँ पाठक को भरपूर आह के पल दिखाई देंगे।
और यही हाइकु की विशेषता है ...सीमित शब्दों में असीमित अर्थ।

अब ऐसे ही एक और कृति पर दृष्टिपात करते हैं----

मक्के का खेत~
गौरैया की चोंच में 
फलीछेदक।

हाइकुकार---

अनुपमा अग्रवाल 

अब इस कृति में प्रथम बिंब है----मक्के का खेत
जिसे पढ़ते ही पाठक की आँखों के सामने मक्के के खेत का दृश्य बनता है।
अब द्वितीय बिंब---
गौरैया की चोंच में फलीछेदक
ये दूसरा वाक्य जिसे दो भागों में विभक्त किया।और यहाँ भी संयोजक शब्द में का प्रयोग दोनों स्वतंत्रत वाक्यों को जोड़ने के लिए किया गया है।
      हाइकु प्रकृति प्रधान विधा है।अतः ये एक सुन्दर प्राकृतिक बिंब है।आज जबकि फोन टावर के कारण गौरैया चिड़िया जो कि लुप्तप्राय होती जा रही है उसका दिखाई देना एक भरपूर वाह का पल है।गौरैया मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र है।वो खेत को नुकसान पहुंचाने वाले कीट पतंगों को स्वाभाविक रूप से खाकर फसल की रक्षा करती है।और गौरैया के मुख में फलीछेदक कीड़ा इस बात का सबूत है।जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ये कीड़ा किसी भी  फली में छेद कर देता है और फसल को नष्ट करके उसे भीतर से खोखला कर देता है।

          हाइकु लेखन में एक बात जो विशेष ध्यान देने योग्य है वह है कटमार्क(~)का प्रयोग---कटमार्क का प्रयोग दो वाक्यों को पृथक करने में तो सहायक है ही, साथ ही बिंब के स्पष्टीकरण में भी सहायक है।

 अब एक और कृति आदरणीय संजय कौशिक विज्ञात जी की देखते हैं और उस पर उनके विचार-----

मेघ गर्जना ~
कांस्य बर्तन पर
विद्युत कांति।

प्रथम बिम्ब *मेघ का गर्जन* एक प्राकृतिक एक पल की घटना है जो कृति में सुशोभित है। इस प्राकृतिक बिम्ब के साथ दूसरा दृश्य बिम्ब किसी दहलीज के संचालन (गैरजिम्मेदारी) का बखान को रखे उपरोक्त शब्द हाइकु को बेहतरीन बना रहा है। यह साधारण दृष्टि से देखा जाए तो सामान्य दृश्य है परंतु इसमें एक खास संदेश भी छिपा है, वह यह है कि काँस्य बिजली का सुचालक है और जब भी गर्जना की संभावन नजर आती है तो लोग सबसे पहले काँस के बर्तनों को बिजली की चमक से दूर करने का प्रयास करते हैं। ऐसी परिस्थिति में यहाँ काँसे का बर्तन खुले में है तो कभी भी बिजली का गाज आ सकता है जो आह के पल को मजबूत कर रहा है।

हाइकुकार-----

संजय कौशिक 'विज्ञात'

                  कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि हाइकु यथार्थ व प्रदत्त नियमों पर आधारित सीमित वर्णों में एक सारगर्भित रचना है।जिसका मूल उद्देश्य अपने द्वारा देखी गयी प्राकृतिक हलचल का सीमित वर्णो में संबंध दिखाना है जो कि कारण/फल से परे हो।


अनुपमा अग्रवाल

Sunday 19 January 2020

आ.अनुराधा जी के शब्दों से हाइकु...

        हाइकु सत्रह वर्णों में लिखा जाने वाला सबसे छोटा छंद है।हाइकु अलंकारविहीन सहज अभिव्यक्ति की कविता है।इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में पाँच वर्ण दूसरी में सात और तीसरी में पाँच वर्ण रहते हैं।
        हाइकु हमारी आत्मिक अनुभूति को दर्शाने वाली एक पल की अनुकृति है, और इस अनुभूति को हम ५/७/५ के क्रम में लिखकर "आह और वाह" के पल के साथ आप लोगों के दिल तक पहूँचाने में सफल होते हैं तो ये एक बेहतरीन हाइकु की श्रेणी में माना जाता है।
        हाइकु को काव्य विधा के रूप में बाशो ने प्रतिष्ठा प्रदान की। हाइकु मात्सुओ बाशो के हाथों सँवरकर १७ वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से जुड़ कर जापानी कविता की युगधारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाइकु विश्व साहित्य की अनमोल निधि बन चुका है।
        अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को 5-7-5 वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह सरासर गलत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को छलावे में रखना है।

        पहले मुझे हाइकु के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हाइकु सुगंध के आदरणीय जगत नरेश सर और आदरणीय विज्ञात जी के अद्भुत हाइकु पढ़ने के बाद मेरी रुचि बढ़ती गई। आदरणीय जगत सर, विज्ञात सर,देव सर,रितु जी, नीतू जी के सानिध्य में मुझे हाइकु की बारिकियाँ सीखने मिली। धीरे-धीरे मेरी जिज्ञासा बढ़ती गई।जो मैंने सीखा वही जानकारी आप सभी के साथ साझा करने की कोशिश कर रही हूँ।यह देखिए आदरणीय जगत सर का लिखा एक हाइकु है।

पूर्वाह्न काल --
बड़ी में घोंप दी माँ
सूखी मिरची।

       यहाँ आदरणीय जगत सर ने पाँच वाले बिम्ब में पूर्वाह्न काल का दृश्य लिया है।पूर्वाह्न काल यहाँ एक मजबूत प्राकृतिक बिम्ब है।
        बारहवें वाले दूसरे बिम्ब में एक पल की अनुकृति दर्शायी गयी है। माँ बड़ी लगा चुकी हैंं, उसके पश्चात् उसे नजर से बचाने के लिए उसमें सूखी लाल मिरची लगा दी। 
         जब घरों में महिलाएं दाल की बड़ी लगाती हैं तो अक्सर यह दृश्य देखने मिलता है। इसी दृश्य को आदरणीय जगत सर ने बड़ी ही खूबसूरती से अपने हाइकु में दिखाया है।

         हाइकु दृश्य बिम्ब पर आधारित रचना है। हाइकु में हमें दो मजबूत बिम्ब चाहिए जो हाइकु के एक पल को फोटोक्लिक में बदल दे।उसमें वाह के पल लिए हुए यथार्थ दृश्य या कोई मार्मिक ध्वनि जो मानवीय संवेदना को प्रकट करती हो ।
हाइकु के पाँच वाले बिम्ब में "क्रिया,कथन का कोई स्थान नहीं होता।

उदाहरण के तौर पर:-
शरद साँझ~
माँ अलाव में डाले
नीम के पत्ती

       यह अपने आप में एक दृश्य आधारित हाइकु है।अगर हम इसके पाँचवे भाग में"साँझ को डाली,या साँझ की बेला" तो यह गलत हो जाएगा क्योंकि हम कह रहे हैं दिखा नहीं रहे।
        हाइकु में हमें ठोस प्राकृतिक बिम्ब चाहिए होता है जो हाइकु की सुंदरता में चार चाँद लगाता है।
         इसी हाइकु का बारहवाँ भाग,जो हमें पूर्ण दृश्य दिखा रहा है।माँ सर्दी में शाम के समय अलाव जलाकर बच्चों की ठंड भगाने की कोशिश कर रही है, साथ ही मच्छर भगाने के लिए नीम के पत्ते को अलाव में डाल रही है।

        हाइकु यानी कम शब्दों में ज्यादा बात। हाइकु में दोहराव, अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। हाइकु बहुत छोटी विधा है, अनावश्यक शब्द इस विधा की खूबसूरती को कम कर देते हैं।
अभी यह दूसरा हाइकु देखिए।यहाँ मैंने लिखा है।

संगम घाट~
उकेरा रेत पर
प्रेमी का नाम।

       अब यहाँ मैं यह लिखती, प्रेमिका ने उकेरा प्रेमी का नाम।तो यहाँ प्रेमिका अनावश्यक है,प्रेमी का नाम तो प्रेमिका ही लिखेगी।तो हमें हाइकु में अपने भावों को व्यक्त करने के लिए दो बिंब चाहिए होते हैं।पाँचवे भाग में मजबूत प्राकृतिक दृश्य बिम्ब होना चाहिए,कथन और कारण फल का हाइकु में कोई स्थान नहीं है। हाइकु में हमारा प्रयास केवल इतना ही होता है कि वह हुबहू वही दृश्य पाठक के सामने शब्दों के माध्यम से पहुँचा सकें।और कम शब्दों में एक पूर्ण दृश्य का निर्माण कर सकें।
***अनुराधा चौहान***

Friday 17 January 2020

हाइकु पर चर्चा...

हाइकु ?

शीत मध्यान्ह --
अपनी ओर पीठ
किये बैठी वो।

Anant Purohit g: यह दृश्य ऐसा लगता है कि कोई जुएँ बीन रहा है बैठ के, गाँव में शीत मध्याह्न में मैंने अकसर धूप में दो महिलाओं को इस मुद्रा में देखा है।
Abhilasha g: बालों में डाई भी करवा सकती हैं
Anant Purohit g: पर मैंने जो देखा है और जो दृश्य मुझे दिखा वह बताया
Abhilasha g: सर क्षमा...
मध्याह्न होता है दिन को अहन् कहते हैं आधा न ह् के  बाद आना चाहिए।
Anant Purohit g: हालाँकि जुएँ बीनने की मुद्रा इसमें नहीं दिखाया गया है
उसे मानसिक बोधगम्य पर छोड़ते हैं
Abhilasha g: वो भी सही है।
: अपनी ओर पीठ
किए बैठी वो

पत्नी भी हो सकती है रूठी हुई।

अपनी ओर से स्पष्ट नहीं कि स्त्रियां ही हैं
Anant Purohit g:

Anant Purohit g: पति जुएँ बीन रहा हो तो

हमारे राजाजी के लिए यह कौनसा असंभव है ?
: वैसे भी नाखून तो काटते ही हैं

यहाँ एक और संदेह भी जाहिर कर देता हूँ। मेरी पहली रचना 'वेणी' (कुण्डलियाँ) में मैंने चिह्न लिखा था। उसे त्रुटि कहकर आदरणीय विज्ञात सर ने सुझाव देते हुए चिन्ह लिखने कहा था परंतु शब्दकोश में भी चिह्न लिखा है

सही क्या है? 🤔

Abhilasha g: जी  उच्चारण कीजिए स्वत ही पता चल जाएगा कौन-सा वर्ण पहले आ रहा है
: वही सही है जो शब्द कोश में है
Anant Purohit g: नहीं हो रहा है स्पष्ट

ब्रह्म और ब्रम्ह में भी यह संदेह आता है

पर फिर विज्ञात सर ने उसे गलत क्यों कहा?
Anant Purohit g: मेरे हिसाब से

मध्याह्न
चिह्न

सही हैं
: ह् + न = ह्न
Abhilasha g: मैंने कई व्याकरण की पुस्तकों में चिह्न को ही शुद्ध शब्दों में पढ़ा है।
Anant Purohit g:
: ह् + म = ह्म
Abhilasha g: अक्सर उच्चारण के कारण ये गलतियां होती है । इनमें ह् की ध्वनि स्वर के अभाव में लुप्त सी हो जाती है।
Anupama Agrawal g: शायद दोनों सही होते हैं।
मसखरे जी: पहले चिह्न लिखा जाता था लेकिन अब के शिक्षाशास्त्री लोग चिन्ह लिखो कहते हैं,,,, जो बच्चों को भी स्पष्ट लगे, इसलिए दोनों सही

Anupama Agrawal g: सर! मेरे मंदमति अनुसार स्त्री दर्पण के सामने बैठी है....जो ऐसा भ्रम उत्पन्न कर रहा है कि वो अपनी ही ओर पीठ किये बैठी है
मसखरे जी: चिन्ह ,चिह्न ,,, दोनों सही है
Nirmal Jain g: चिह्न -सही है
Abhilasha g: दोनों सही नहीं है ये और बात है कि हम प्रयोग में लेते -लेते भूल गए हैं कि
किसे सही माने नेट-स्लेट ,बोर्ड  की परीक्षा तक में चिन्ह का शुद्ध रूप पूछा जा चुका है
Abhilasha g: यदि ऐसा है सर तो परीक्षाओं में बेचारे बच्चों को क्यों परेशान किया जाता है चिन्ह का शुद्ध रूप पूछ कर ,वो भी बोर्ड परीक्षा में।

Anupama Agrawal g: दूसरा एक भाव ये भी हो सकता है कि किसी जलस्त्रोत के निकट वो उल्टी पीठ करके बैठी हो।

Anupama Agrawal g: सर्दी का मौसम है और वो पानी में  जाने से घबरा रही हो अतः पीठ घुमाकर बैठ गयी।क्योंकि जितना सूर्य ऊपर चढ़ता है उतना ही पानी अधिक ठंडा होता जाता है।
मसखरे जी: सर्दी के मौसम में दोपहर को शीत   मध्यान्ह कह सकते हैं ....मुझे तो  अलग लगता है,,, बिना विशेषण सर्वनाम के शीत को ??
Anupama Agrawal g: जी आपका अभिप्राय नहीं समझी
Nidhi g: Khud ki taraf koi peethh kar ke kaise baithh saktaa hai ??
अनुराधा चौहान जी: अपनी और पीठ /या धूप की और पीठ??
अपनी और पीठ किये बैठी वो।
आईना??
आईने में ही खुद की तरफ पीठ कर सकते हैं
Anupama Agrawal g: आईना भी और पानी की तरफ यदि आप उल्टा मुँह करके बैठें तो पानी के अक्स की तरफ पीठ होगी

अनुराधा चौहान जी: जी अक्स तो दो में ही दिख सकता है
सर ऐसे हाइकु देते हैं समीक्षा के लिए सिर घूम जाता है

Anant Purohit g: दर्पण की ओर पीठ करेंगे तो पीठ पीठ आमने सामने होंगे

आप और पीठ नहीं
अनुराधा चौहान जी: सही कहा सखी अभी हम उतनी गहराई में नहीं उतर पाए।सर के हाइकु की समीक्षा कर ली तो पास हो गए समझो
Abhilasha g: कहीं धूप में उसकी परछाई तो ऐसी प्रतीत नहीं हो रही।
Anant Purohit g: बीवी रूठ गई है - अपनी ओर पीठ किए वो
Anupama Agrawal g: तो कृति में ये कहाँ लिखा है कि अपनी तरफ मुह करके बैठी??
Abhilasha g: दोपहर की धूप में बैठी हो और ऐसे की लगे कि वो अपनी और पीठ करके बैठी है।
Anant Purohit g: अपनी ओर बोले तो सामने की ओर ही तो होगा
अनुराधा चौहान: सर ने नींद भगाओ हाइकु दिया है।सोचो किसकी पीठ

शायद उसके बच्चे को कोई दृश्य दिखा रही है गोद में बैठाकर
Anupama Agrawal g: अपनी पीठ की ओर भी तो हो सकता है
Abhilasha g: मैंने तो पहले ही कहा पत्नी या प्रेमिका रूठ गई है इसलिए पीठ घुमा कर बैठी है अपनी शब्द पति या प्रेमी के लिए।
अनुराधा चौहान जी: शायद उसके बच्चे की पीठ अपनी और करके कोई दृश्य दिखा रही है गोद में बैठाकर
Anupama Agrawal g: पति के लिए अपनी???
बच्चे के लिए अपनी???
Abhilasha g: अपनी ओर पीठ
किए बैठी वो

वो पर ध्यान दें।
अनुराधा चौहान जी: *बच्चे की* अपनी और पीठ किये बैठी वो।
Anupama Agrawal g: हाँ तो वही ना....वो एक स्त्री ....
Anant Purohit g: ये साइकु बना के छोड़ेगा
अनुराधा चौहान जी: किसी की पीठ हो सकती है,पति,प्रेमी, बालिका,शिशु।
Abhilasha g: मुझे तो सौ प्रतिशत रूठी हुई लग रही है
Anupama Agrawal g: अनुराधा जी.....हो सकता है आप जो कह रही हैं  वो भी सही हो....पर मेरे ख्याल से ऐसा नहीं
Anant Purohit g: चूँकि हाइकु में हम अपना अनुभव बताते हैं अतः - अपनी का अर्थ अपन हुए
अनुराधा चौहान जी: सर ने किसी को गुस्सा कर दिया
: वैसे हमारे सर गुस्सा करना नहीं जानते।
Anant Purohit g: और गुस्से की गहन अनुभूति में एक पल की अनुभूति के रूप में हाइकु प्रफुटित हुआ
Anupama Agrawal g: इस बात में point है यहाँ कर्ता सर हो सकते हैं।फिर तो भाव स्पष्ट हैं।
Anant Purohit g: सर भुक्त भोगी हैं
: मैं समझ सकता हूँ
अनुराधा चौहान जी: अपन की ओर पीठ करली उसने अब किसकी पीठ है वो नहीं पता।
: अब बिंब स्पष्ट हो गया
Abhilasha g: या तो पत्नी,प्रेमिका या धूप में पड़ने वाली उसकी परछाई
Anupama Agrawal g: आखिर हम सबने मिलकर पहेली सुलझा ली
Anant Purohit: वैसे भी जो गुस्सा हुई है वो आज सर को सोने कहाँ देगी
बेचारे गुरूजी
Abhilasha g: चूंकि पीठ स्त्रीलिंग है इसलिए वो स्त्री की हो जरूरी नहीं और उसके पूर्व का शब्द भी स्त्रीलिंग ही होगा
अनुराधा चौहान जी: मेरा तो मानना है उसके बच्चे की पीठ है।जो गोद में बैठा कुछ देख रहा है।
Abhilasha g: अपनी और वो दो अलग लोग हैं पीठ वो की है
Anupama Agrawal g: पीठ तो स्त्री की ही होगी
अनुराधा चौहान जी: अपनी और पीठ कैसे कर सकती है??
Anupama Agrawal g: हाँ और वो स्त्रीलिंग है ....बैठी
अनुराधा चौहान जी: किसी और की पीठ अपनी और की होगी।
Anupama Agrawal g: इसकी संभावना कम है
Abhilasha g: अपनी ओर--?
पीठ किए बैठी वो
Anupama Agrawal g: यहाँ हाइकुकार ने जो दृश्य देखा वो उसे शब्दों में बयां कर रहा है

Anant Purohit g:
शीत मध्याह्न~
अपनी ओर पीठ
किए बैठी वो

*अपनी ओर पीठ किए बैठी वो*
यह एक पल की अनुकृति है। इसमें पाठक के लिए अपार संभावनाएँ हैं कि वह हाइकु को अपने दृष्टिकोण से देखे। पाठक के मनोदशा और उम्र के हिसाब से इस हाइकु का अलग अलग अर्थ निकलेगा।

अतः यह एक पूर्ण हाइकु है। परंतु अभी एक चीज अस्पष्ट है कि इसका शीत मध्याह्न से संबंध क्या है?

यह हाइकु मानसिक बोधगम्य हाइकु की श्रेणी में आता है।
Anupama Agrawal g: बाप रे!!!कमाल की समीक्षा
अनुराधा चौहान जी: ठंड में ठिठुर के भी बैठेगी तो भी वही बात हुई??
Anupama Agrawal g: पर भी हम लोगों से और दिमागी कसरत करवाने के मूड में हैं सर
अनुराधा चौहान जी: हाँ पता है पल-पल की खबर है सर को।पर सही जवाब एक भी नहीं
: जब तक पहेली हल नहीं हो जाती सर यूँ ही चुपचाप सब देखते रहेंगे
Anant Purohit g: अब और नहीं
फाइनल यह है कि बीवी रूठ गई है। बेलन लेके बैठी है। पीटने को तैयार
Anupama Agrawal g: अरे!!!!एक चीज और हो सकती है
अनुराधा चौहान: क्या
Anupama Agrawal g: Double mirror ho
: जैसे पार्लर में होता है तब ये फील होता है कि अपनी ओर पीठ है
Anant Purohit g: सैलून का जिक्र तो किया था आदरणीया अभिलाषा जी ने
: बाल कटाते समय भी यह हो सकता है
Anupama Agrawal g: शीत मध्याह्न से संबंध ये कि सर्दियों में शादियाँ बहुत होती हैं
Anant Purohit g: शीत मध्याह्न से संबंध है
Anupama Agrawal g: और ladies afternoon में ही free होती हैं
अनुराधा चौहान जी: शॉल में किसी को छुपाकर बैठा रखा है ठंड न लगे
Anupama Agrawal g: अब picture clear है
Wandana Solanki g: क्या,,बताओ
Anupama Agrawal g: बताया तो ऊपर
Anupama Agrawal g: गर्मी में मेकअप खराब हो जाता है पसीने से

Jagat Naresh g: उपरोक्त मेरी कृति को रखने का एक उद्देश्य है। अब इसके बारे में भी आगामी दिनों शब्द उजागर करेंगे... नतीजा कुछ भी हो, आप सबने अपना बहुमूल्य समय मेरी कृति को दिए। हृदयतल से आभारी हूँ
        हाइकु में इससे भी गंभीर और रोचक कृतियाँ आयेंगे ये तो निश्चित है।
       आज तो खूब चीरफाड़ हुए... समीक्षा सराहनीय रहा। आप सबको बधाई 💐💐💐


Anant Purohit g:
शीत मध्याह्न~
अपनी ओर पीठ
किए बैठी वो

वाह!! अप्रतिम रचना!!

कल एक बात पूरी तरह से स्पष्ट थी कि बिना शीत मध्याह्न के इस हाइकु का कोई मतलब नहीं है।

गहन चिंतन मनन करने पश्चात यह पाया कि कोई (नर हो या नारी या बच्चा) भी जब धूप सेवन करने के लिए सूर्य की ओर पीठ करके बैठेगा तो उसकी छाया उसकी ओर पीठ करके बैठेगी।

होने को तो ऐसा किसी भी मध्याह्न पर संभव है यदि कोई बैठे धूप में तो। परंतु गर्मी मध्याह्न में कोई बैठेगा नहीं।

बिना शीत मध्याह्न के इसका कोई औचित्य नहीं।

वाह!! लाजवाब रचना।
अनुराधा चौहान जी: पर बीच दिवस जब सूरज ठीक सिर के ऊपर होता है। तो परछाई का आकार बहुत छोटा होता है। ऐसा दृश्य तो चार बजे के आस-पास की धूप में दिखाई देगा।

एक जिज्ञासा
Anant Purohit g: जी!! यह तो प्रेक्षक बता रहा है अपना अनुभव न कि जिसकी छाया बन रही है।

मध्याह्न मतलब 12 बजे 3 बजे तक का समय। प्रेक्षक को इस बीच किसी भी समय पर यह दिख सकता है।

अनुराधा चौहान जी: जी सही है। सर हमारे दिमाग के पुर्जो को समय-समय पर झटके देते हैं।
: जल्दी ही कोई नया झटका मिलेगा

Jagat Naresh g: शीत काल में सूरज सीधा नहीं होता। ग्रीष्म में होता है
           विगत रात्रि पता चला कि बिम्ब की पकड़ काफी मजबूत हो चुकी है जिससे साबित होता है कि हाइकु के गुण तत्व आप सबसे अनछुआ नहीं रहा। गर्व का विषय है कि हम विधा के करीब हैं। आप सबको हार्दिक बधाई 💐🌸🌹🌷👏👏👏
Anupama Agrawal g: वाह!!!!बात वही ठीक रही जो अभिलाषा जी ने कही थी।सुन्दर विवेचना 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

            उपरोक्त कृति के दोनों बिम्बों के सामंजस्य में तरह-तरह के विचार पढ़ने को मिले, जिससे स्पष्ट होता है कि यह कृति मानसिक बोधगम्य बिम्ब के अंतर्गत प्रयोग सफल रहा। कृति को जब-जब हम देखेंगे और उस पर चिन्तन करेंगे, तब-तब इनमें भिन्नता पाते हैं। बाल्य, युवा, प्रौढ़ तीनों के विचार इस कृति में भिन्न पाये गये हैं। बाल्यावस्था पाता है कि धूप सेंकने के लिए कोई बैठी हो। युवावस्था पाता है कि उसकी प्रेमिका या पत्नी उससे नाराज होकर बैठ गयी हो।
           इस प्रकार यह कृति पाठक की अवस्था और परिस्थिति पर निर्भर करता है कि वह किस तरह इसे देख पा रहा है, अर्थ में भिन्नता पायी जा सकती है। अर्थात् मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि रचना में क्या है। इसलिए यह कृति मानसिक बोधगम्य बिम्ब आधारित मान्य है।

संचालक
हाइकु विश्वविद्यालय
नरेश कुमार जगत

हाइकु के प्रति आ. अभिलाषा जी के शब्द...

          हाइकु जापानी छंद विधा है।यह एक पल की अनुकृति या फोटोक्लिक में पाया जाता है। इसमें मात्र सत्रह वर्णों में हमें दृश्य का चित्रण करना होता है।जिसे हमने देखा या अनुभूत किया है।जिसे पढ़ते हीआह' या 'वाह'का भाव मन में उठे।हाइकु पूर्ण रूप से बिंबआधारित रचना है। इसमें दृश्य बिंब का प्रयोग अनिवार्य रूप से होना चाहिए।यह पूर्णतः प्रकृति मूलक हो।

        प्रकृति मूलक से तात्पर्य-प्रकृति द्वारा निर्मित जिसे प्रकृति ने बनाया है,जैसे-   तारे,सूर्य,चंद्र,पर्वत ,पक्षी ,आकाश,पृथ्वी,वृक्ष,पुष्प,जीव-जंतु इत्यादि।

         हाइकु में दो बिंब होते हैं और वे एक पूर्ण दृश्य का निर्माण करते हैं।इस प्रकार एक बिंब पाँच
वर्ण का और दूसरा बारह वर्ण का होता है।जैसे-

१.हल्दी की रस्म~

२.विधवा के हाथ में लाल चुनर।

         यहाँ पर दो बिंब है। एक बिंब पाँच वर्ण का है, "हल्दी की रस्म" एक विशेष समय सूचक बिम्ब है जो पूर्ण रूप से प्राकृतिक है और साथ ही हल्दी प्रकृति प्रदत्त है। दूसरा बिंब बारह वर्ण का है"विधवा के हाथ में लाल चूनर"ये दोनों बिंब अलग हैं, लेकिन जब इन्हें साथ में रखा जाता है तो ये भरपूर 'आह' के पल दिखातें हैं।

हल्दी की रस्म~
विधवा के हाथ में
लाल चुनर।

अब पाठक का इस हाइकु पर अपना दृष्टिकोण हो सकता है।
'हल्दी की रस्म' विवाह कार्य से संबंधित है ,विधवा कौन है?कोई भी परिवार की स्त्री या जिसका विवाह हो रहा है
वो भी।अगर परिवार की स्त्री है तो निस्संदेह वह लाल चुनर में अपने वैवाहिक जीवन का स्मरण कर रही है।अगर विधवा का पुनर्विवाह हो रहा है और उसके हाथ में
लाल चुनर है तो निस्संदेह 'वाह' के पल होंगे।एक कुप्रथा का अंत दिखाया जा रहा है और हो सकता है कि विधवा घर की कोई स्त्री हो ,जो दुल्हन को लाल चुनर भेंट कर रही हो,तो यहाँ भी एक कुप्रथा का अंत है जिसमें शुभ कार्यों में विधवा को त्याज्य माना जाता है।इस हाइकु में पाठक अपना अर्थ ग्रहण करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। अतः आह और वाह के पल भरपूर,एक पल की अनुकृति है यह हाइकु।
          तुलना व मानवीकरण का प्रयोग नहीं है,कल्पनानहीं है।अतः हाइकु की रचना में एक ठोस प्राकृतिक बिंब जैसे-

भोर लालिमा
निर्जन गली
पूर्व मध्याह्न
रजनीगंधा
ईख के खेत ,
इत्यादि ऐसे बिंबअनिवार्य रूप से होना चाहिए और दूसरा बारह वर्णों का बिंब जो पूर्ण वाक्य हो,जिसमें शब्दों का दोहराव न हो जिसमें प्रथम बिंब के सौंदर्य को स्पष्ट करने की क्षमता हो लेकिन कारण-फल न हो ।वह पाँच- सात-पाँच के क्रम में विभक्त होने पर भी एकपल की या क्षण की अनुकृति लगे। जिसमें रचनाकार स्वयं कुछ न कहकर बस एक दृश्य निर्मित करे, जैसे-

द्वार पे ईख~
आँगन में चौक पे
सिंघाड़ा-कंद।

         इसमें रचनाकार ने स्वयं कुछ न कहकर दृश्य निर्मित किया है।जो एक पल की अनुकृति के साथ एक परंपरा का चित्रण कर रहा है। इस प्रकार हाइकु रचना गहन चिंतन मनन की विधा है।एक वाक्य को तोड़ कर रख देना हाइकु नहीं।शब्द-सीमा की प्रतिबद्धता के कारण इस विधा को अच्छी तरह सोच-विचार कर,नियमों काअवलोकन करके ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए इसमें कटमार्क का अपना विशेष स्थान है,जहाँ यह ठोस बिंब को दूसरे बिंब से अलग करता है , वहीं दूसरे बिंब के साथ प्रथम बिंब के सौंदर्य को स्पष्ट करता है।यह बारह वर्णों के बिंब के साथ भी जुड़ सकता है और पांच वाले के साथ भी।

पत्तों से ढका
अंगाकार तवे में~
धन्नी सुगंध।
(आ.जगत नरेश)
के इस हाइकु से इसे आसानी से समझा जा सकता है।उन्होंने इस हाइकु में प्राकृतिक बिंब के सार्थक प्रयोग के साथ एक पल की अनुकृति को हमारे समक्ष उपस्थित किया।मात्र सत्रह वर्णों में उन्होंने कितना सुंदर दृश्य
उपस्थित किया है।भरपूर वाह के पल है इसमें। अतः हम कह सकते हैं कि श्रेष्ठ हाइकु गागर में सागर जैसा होता है जो पाठक को सोचने पर विवश करता है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

Saturday 11 January 2020

हाइकु: एक रोचक विधा .... अनंत पुरोहित 'अनंत'


*हाइकु: एक रोचक विधा

हाइकु साहित्य की एक नई विधा है जो दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होते जा रही है। अपने लघु स्वरूप के कारण आज की आपा-धापी और व्यस्त जीवनशैली में कविता की यह विधा बहुत ही प्रासंगिक है। ऐसा माना जाता है कि यह एक जापानी काव्य विधा है और जापानी कवि मात्सुओ बाशो ने इसे लोकप्रिय किया। परंतु हाइकु कविता भारत के लिए नई नहीं है। प्रश्नोपनिषद में अनेक संस्कृत हाइकु मिलते हैं। *जिससे पुनः इस बात की पुष्टि होती है कि वेदों और उपनिषदों से इतर संसार में अन्य कोई भी विचारधारा या विधा उत्पन्न नहीं हो सकी है।* इस संदर्भ में हिंदी हाइकु लोक के संपादक डाॅ. मिथिलेश दीक्षित ने भूमिका में प्रश्नोपनिषद का निम्नलिखित हाइकु उदाहरणार्थ लिखा है-

 *देवौ नामासि* 
 *वाह तंमः वितृष्णा* 
 *प्रथमा स्तवा*   

हिंदी साहित्य में छंदों का विशेष महत्व है और हाइकु भी दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया इत्यादि की तरह ही एक लघु छंद काव्य है। हाइकु वस्तुतः 5-7-5 क्रम का एक वर्णिक छंद है जिसकी तीन पँक्तियों में क्रमानुसार 5-7-5 वर्ण होते हैं, अर्ध वर्ण को अन्य वर्णिक छंदों की तरह ही नहीं गिना जाता। परंतु क्या सभी 5-7-5 को हाइकु माना जा सकता है? नहीं! 5-7-5 क्रम में वर्ण होना हाइकु की अनेक विशेषताओं में से एक है परंतु इसकी अन्य अनेक विशेषताएँ हैं जो इसे विशिष्ट बनाने के साथ-साथ रोचक और जटिल भी बनाती हैं। इन शर्तों को पूरा किए बिना 5-7-5 के वर्णक्रम को हाइकु नहीं कहा जा सकता। इसकी जटिलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्सुओ बाशो ने कहा था यदि किसी ने अपने जीवन काल में तीन अच्छे हाइकु रच लिया तो वह श्रेष्ठ कवि है और यदि किसी ने दस रचनाएँ कर ली तो वह महाकवि है।

मूलतः प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करने वाली यह लघु कविता अपने आप में इसीलिए विशिष्ट है कि इसमें भावों को 'कहकर' बताना मान्य नहीं है। अर्थात लेखक अपने भावों को भावसूचक शब्दों से व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। लेखक को अपने भावों को पाठक तक पहुँचाने के लिए अपने शब्दों के माध्यम से वैसा ही दृश्य बिंब बनाना होगा और शब्दों का ऐसा चुनाव करना होगा कि कुछ भी कहा न जा रहा हो बल्कि एक दृश्य बिंब बन रहा हो। अतः कहा जा सकता है कि अपने एक पल के अनुभव को बिना भावसूचक शब्दों के दृश्य बिंब के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाना ही हाइकु है। तीन पँक्तियों में दो पूर्ण और स्वतंत्र वाक्य में दो दृश्य बिंब बनने चाहिए जो आपस में एक दूसरे का स्पष्ट कारण फल न बनते हुए एक दूसरे से गहरा संबंध रखता हो और पाठक के लिए एक संदेश या आह या वाह का पल निर्मित करता हो। हाइकु की यह शर्त उसे विशिष्ट बनाने के साथ-साथ बहुत जटिल बना देता है।

दृश्य बिंब को पढ़ कर पाठक अपनी कल्पना करने के लिए स्वतंत्र है। पाठक को स्वतंत्रता देने वाली एकमात्र विधा है हाइकु जो कि किसी भी अन्य विधा में नहीं मिलता। साहित्य की अन्य विधाओं में लेखक अपने शब्दों और तर्कों के माध्यम से पाठक को वही सोचने पर बाध्य करता है जैसा कि वह स्वयं सोच रहा है। परंतु हाइकु इससे इतर पाठक को कल्पना करने की स्वतंत्रता देता है। इसमें कवि या लेखक का प्रयास केवल इतना ही होता है कि वह हुबहू वही दृश्य पाठक के सामने शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करे। उसके शब्दों से उसका स्व अनुभव नहीं झलकना चाहिए वरन् वह अनुभव दृश्य बिंब बनकर पाठक को स्पष्ट होना चाहिए। भावों को भावसूचक शब्दों के बिना कहना टेढ़ी खीर है और यही इस विधा की सुंदरता है। 

चूँकि भावाभिव्यक्ति दृश्य बिंब के माध्यम से है अतः दोनों बिंबों में स्पष्ट कारण-फल नहीं होना चाहिए। बिंबों में स्पष्ट कारण-फल पाठक को पुनः वही सोचने पर विवश करेगा जो कि प्रेक्षक/लेखक अनुभव कर रहा है और पाठक की स्वतंत्रता बाधित होगी। अतः लेखक को अपनी बात, संदेश या अनुभव दो दृश्य बिंबों के द्वारा बिना कारण-फल दोष के कहना है।

इसे एक उदाहरण (स्वरचित) से समझने का प्रयास करते हैं-

 *लीपे द्वार से* 
 *गोबर की महक~* 
 *मुर्गे की बाँग* 
*हाइकुकार - अनंत पुरोहित*
उपर्युक्त उदाहरण में *'लीपे द्वार से गोबर की महक'* एक ठोस बिंब पाठक के सामने रखा जा रहा है। यह दृश्य बिंब न होकर इंद्रिय बोधगम्य बिंब है। इंद्रिय बोधगम्य बिंब का अर्थ है ऐसा बिंब जो हमारे इंद्रियों द्वारा संभव हो। देखना चक्षुओं के द्वारा, कर्ण से सुनना, घ्राणेंद्रिय से सूँघना और त्वचा से स्पर्श यह सब इंद्रिय बोधगम्य के अंतर्गत स्वीकार्य हैं। अब पुनः उदाहरण की ओर दृष्टिपात करते हैं- गोबर से द्वार लीपा गया है। भारतीय सभ्यता संस्कृति में घर के सामने सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त में घर के सामने द्वार पर गोबर मिश्रित जल का छिड़काव किया जाता है या फिर लीपा जाता है। इस परंपरा को छरा-प्रहरा कहा जाता है। गोबर मिश्रित जल और मिट्टी से सौंधी-सौंधी सुगंध उठती है और यह कार्य ब्रह्म मुहूर्त में किया जाता है जिसका एक अन्य लक्षण है मुर्गे की बाँग। मुर्गा इसी समय बाँग देता है। दोनों बिंब एक दूसरे के कारण-फल नहीं हैं परंतु एक दूसरे के सहयोगी बनकर इस संदेश को पूर्ण कर रहे हैं कि ब्रह्म मुहूर्त में छरा प्रहरा किया गया है। सुंदर सौंधी खुशबू आ रही है जो कि एक वाह का पल निर्मित कर रहा है। साथ ही इसके पीछे एक आह का पल भी छुपा हुआ है कि किस प्रकार गृहस्वामिनी सुबह-सुबह उठकर छरा-प्रहरा करती है चाहे कैसा भी मौसम हो, सर्दी, गर्मी, बरसात कुछ भी हो। भारतीय संस्कृति और सभ्यता को आह और वाह के पलों के साथ निरूपित करता हुआ यह एक पूर्ण हाइकु है।

उदाहरण स्वरूप श्री संजय कौशिक 'विज्ञात' जी की रचना देखते हैं-

 *गंगा का तट-* 
 *ग्रहण मोक्ष पर* 
 *वस्त्र के ढेर* 
*हाइकुकार - संजय कौशिक 'विज्ञात'* 

बतौर समीक्षक श्री नरेश जगत जी इस रचना पर लिखते हैं- 
श्री नरेश जगत समीक्षा : 1

ध्यान रहे जहाँ देवी देवताओं या व्यक्ति विशेष का वर्णन हो, तब वह कृति सैर्न्यू कहलाती है।

मेरे विचार से उपरोक्त आपकी कृति एक ऐसी जटिल और कहें तो असामान्य कृति है।  जब कभी भी देखो और विचार करो तो विचार को भिन्न दिशा में ले जाती है, यह पाठक के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि वह किस तरह इस कृति को पाता है। माना कि सभी के दृष्टिकोण समान नहीं होते पर यह सृजन बहुत ही मर्मस्पर्शी संदेशात्मक कृति है। हम सबको भलीभाँती ज्ञात है कि हाइकु में प्रकृति की विशेष घटना जो एक पल के लिए अपने समक्ष पाए जाते हैं और दोबारा के लिए ललक छोड़ जाते है, ऐसी घटनाओं के साथ ऋतु, तीज-त्यौहार, प्रथा-परंपराओं अथवा प्रेरक शैलीयों का चित्रण किया जाता है। ठीक उसी प्रकार आपके उपरोक्त कृति में एक प्रथा के रुप में सूर्य ग्रहण काल की अंतिम दशा का वर्णन है जिसमें *गंगा का तट* प्रथम प्राकृतिक बिम्ब के रुप में आवश्यक तत्व समाहित किये हैं। जो एक ठोस दृश्य बिम्ब है। इससे सम्बंधित दूसरा बिम्ब *ग्रहण मोक्ष पर वस्त्र के ढेर* ग्रहण काल की चरम सीमा में होने वाली घटना का चित्रण, वस्त्र के ढेर के रुप में सदृश्य है जो एक मार्मिकता को दर्शा रही है, क्योंकि यहाँ स्नान के लिए उतरे वस्त्र नहीं बल्कि दान के लिए निकाले गये वस्त्रों का वर्णन हो सकता है। हाँ माना कि उस दान का स्पष्ट उलेख नहीं है, यहीँ इस कृति की कलात्मकता है। यदि उसका वर्णन स्पष्ट कर दिया जाए तो कारण फल बनकर हाइकु निर्मित नहीं हो पायेगी। 

अतः इस कृति में प्रथा को जीवंत दिखाते हुए आपके द्वारा पाठक को यह संदेश देने का प्रयास किया गया है तथा इस ग्रहण के मोक्ष काल में स्नान के बाद दान करना शुभ होता है। पाठकगण मेरे विचार से सहमति जताएँ ये सम्भव है उनके विचार पृथक भी हो सकते हैं........

*इसी रचना को ही आदरणीया ऋतु कुशवाह जी कुछ इस तरह से देखती हैं* 

*ऋतु कुशवाह समीक्षा -2*

1. प्रथम बिम्ब:
मोक्षदायिनी गंगा जी का तट
2. द्वितीय बिम्ब:
*ग्रहण मोक्ष पर वस्त्र का ढेर*
'ग्रहण मोक्ष: ग्रहण का समाप्ति काल"
ग्रहण समाप्त होने पर नदी पर स्नान करने गए लोग दुख, दरिद्र, कष्ट, रोग से पीछा छूटे ऐसी धारणा से पुराने वस्त्र घाट पर छोड़ आते हैं। इसी दृश्य को दिखाया गया है।
*विशेष टिप्पणी*: यह एक प्रकार की रीति है। रीतियां धर्म से संबंधित होती है। अतः इसे आप धार्मिक तो देख सकते है। किन्तु ककी इसमे कही भी स्वयं भगवान का या पूजा पाठ का जिक्र नही है अतः यह सेनेर्यू की श्रेणी में नहीं हाइकु की ही श्रेणी में आता है।

*ठोस प्राकृतिक बिम्ब*: गंगा का तट
क्षमा प्राथी हूँ, किन्तु इसमे साफ साफ वर्णन है कि वस्त्रो का ढेर है तट पर यह वस्त्र दान के लिए नही होते अपितु स्नान करते समय पहने हुए गीले वस्त्र होते है, जो लोग तट पर छोड़ कर जाते है।
कारण फल का दोष इसलिए नहीं है क्योंकि ग्रहण और वस्त्रो के ढेर दोनो का वर्णन एक ही भाग में हुआ है। यदि दोनों में से किसी भी एक का वर्णन 12 वाले भाग में और दूसरे का वर्णन 7 वाले भाग में होता तो यह कारण फल होता क्योंकि निश्चित ही दान भी होते उस समय परंतु तट पर वस्त्रो का ढेर वो भी मोक्ष के समय तो मुझे सर्वाधिक निकट छोड़े गए वस्त्र ही लगते हैं। परंतु दान बहुत होता है, मैं इससे भी सहमत हूँ।*

इन दो उदाहरणों से एवं अलग-अलग पाठक की दृष्टिकोण  पढ़ने पर हाइकु का एक खाका स्पष्ट दिख जाता है कि पाठक अपने दृष्टिकोण से देखने लिए स्वतंत्र है। बस दोनों पाठकों में एक बात समान है कि श्री विज्ञात जी की रचना ने दोनों ही पाठकों के मन की संवेदनाओं को छुआ। बिना इसके कोई भी रचना सार्थक नहीं हो सकती।

इस प्रकार अंत में निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अनुभूति के चरम को विभिन्न नियमों के ताप में तपाकर जब रचना निकलती है तो उससे शुद्ध सोने की सी स्वर्णाभ चहुँ ओर व्याप्त हो जाएगी।

*लेखक* -
*अनंत पुरोहित*

  https://www.blogger.com/profile/17801488357188516094 Blogger 2023-01-14T07:17:12.311-08:00 <?xml version="1.0" encoding="...