Friday 24 July 2020

चर्चा सार में...

कोरोना काल--
कंटेन्मेंट जोन में 
घुसा विक्षिप्त

सुकमोती चौहान

आ. सौरभ प्रभात जी: कंटेन्मेंट जोन के लिये नियंत्रण क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है शायद 

आ. निधि जी: मुझे कोरोना काल सही बिंब नही लगा कभी भी ..कोरोना महामारी है रोग है कोई काल नही है..
पहले भी बहुत सी महामारियां और भीषण दुर्घटनाएं हो चुकी ..लेकिन उनको काल नही लिखा गया..
जैसे ..
हैजा काल
भोपाल गैस कांड काल
उपहार सिनेमाहाल अग्निकांड काल 
विश्व युद्ध काल 
आदि
लेकिन बहुत सारी रचनाएं लिखी जा चुकी हैं कोरोना काल को बिंब बना कर
किन्तु मेरी मंदमतिनुसार ये बिंब गलत है 
सादर क्षमाप्रार्थी

आ. सुकमोती जी: जी दीदी आपका कहना सही है किन्तु *कोरोना काल*  महामारी के लम्बी समयावधि को दर्शाने के प्रयोग किया है 

आ. निधि जी: विश्व युद्ध तो कई वर्षों चला
हैजा महामारी भी बहुत समय तक फैली

आदरणीय सर के विश्लेषण की प्रतीक्षा है

आदरणीय जगत नरेश जी: आपके सटिक विचार और चोखी नजर को सादर नमन् आ. निधि जी

कृपया इस विषय सुझाव रखें कि इस काल को और किस तरह रखें कि वह एक पूर्ण बिम्ब हो, सादर निवेदन

आ. निधि जी: हार्दिक आभार आदरणीय सर ...मेरी कोई विशिष्टता नहीं है इसमें...आप सब के मार्गदर्शन और समीक्षा से ही सीख रहे हैं हम सब ...कोरोना काल वाली रचनाएं पढ़ी तो जो विचार आया वही साझा किया था

आ.जगत नरेश जी: मेरा मानना है कि हम जिसे दिखाने में सक्षम नहीं हो पाते या यूँ कहें कि जिसका दृश्य नहीं बन पाता तो उसके चरम शब्दों से कथ्य के माध्यम से उस बिम्ब को पाठक तक पहुँचा सकते हैं। पर जिसका दृश्य बनता हो उसका कथ्य बिम्ब शून्य मान्य न दें तो बेहतर।
     शेष आप सभी इस विषय में विचार के पश्चात् निश्चित करेंगे। आप सबके विचार सादर आमंत्रित हैं।

आ. सौरभ प्रभात जी: *कोरोना काल का बिंब रूप में निरूपण कितना सार्थक*


कई दिनों से पटल पर कोरोना काल को लेकर असमंजस की स्थिति उत्पन्न है, कि इसे बिंब के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है अथवा नहीं। इस परिचर्चा में मेरी समझ से एक छोटा सा विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ।

*काल* शब्द स्वयं में काफी विस्तृत है। इसके उच्चारण मात्र से पाठक अथवा श्रोता को किसी खास समय का उसकी विशेषताओं के साथ भान हो जाता है। जैसे रामायण काल कहते ही मानस पटल पर राम, रावण, हनुमान, लंका, अयोध्या, इत्यादि के दृश्य चलायमान हो जाते हैं, ऐसा ही महाभारत काल की भी स्थिति है। मुगल काल हो या अंग्रेजी शासन काल, इन सब की कुछ खास ऐसी विशेषतायें है, जिसने एक बहुत बड़े भूखंड पर समान आचार, विचार व व्यवहार को प्रतिस्थापित किया।

 बाढ़ की आपदा, अकाल, हैजा महामारी, भोपाल गैस त्रासदी, या कोई अन्य प्राकृतिक जन्य आपदायें.... ये सभी भी अपने आप में महत्वपूर्ण हैं, परंतु इनका दायरा निश्चित होता है, या तो इनका फैलाव क्षेत्रीय स्तर पर हुआ या होता है अथवा इनकी पुनरावृति होती रहती है। पूरा विश्व कभी एक बार में ही इनकी चपेट में आया हो, ऐसा ज्ञान नहीं है मुझे। जहाँ तक बात है विश्वयुद्ध की, तो इससे पूरा विश्व प्रभावित तो हुआ परंतु अप्रत्यक्ष रूप से। प्रत्यक्ष रूप में इसका असर भी सीमावर्ती क्षेत्रों अथवा सेनाकर्मियों एवं शासनतंत्र तक सीमित रहा। इस अवधि में कोई ऐसा विशेष आचरण व्यवस्था भी रही हो, इसमें भी संदेह है। अतएव इन्हें काल की संज्ञा देना वैसे भी उचित प्रतीत नहीं होता।

अब बात करते हैं कोरोना की, एक दुःसाध्य रोग, जिसने एक छोटे से कस्बे से अपना स्वरूप पाया और देखते ही देखते वैश्विक रूप इख्तियार कर लिया। वैश्विक स्तर पर करोड़ों जनता को प्रभावित करता यह रोग अपने साथ कुछ खास आचार, नियम, व्यवहार लेकर आया, जो पूरी दुनिया में मान्य किये गये, जिसके कुछ उदाहरण हैं - मास्क, सैनेटाइजर, लॉकडाउन, सामाजिक दूरी इत्यादि। अभी तक के कालखंड में किसी भी बीमारी ने पूरे विश्व को एक ही तरह के नियम व्यवहार के दायरे में नहीं बाँधा था, (और ईश्वर से कामना है कि भविष्य में भी ऐसा न हो).... यदि फिर कभी ऐसा होता भी है, तो भी सर्वप्रथम तो सदा ही याद रखा जाता है। इसप्रकार यदि हम देखें तो पायेंगें कि कोरोना संक्रमण का ये दौर मानव जीवन की एक अमिट याद बनकर सदा ही रहने वाला है, जिसके नाम से ही बहुत से दृश्य यथा- मुख पर मास्क लगाये लोग, सैनेटाइजर का प्रयोग एवं गंध, पीपीई सूट, लॉकडाउन और उससे जुड़ी अनेकानेक परेशानियाँ इत्यादि मानसपटल पर स्वतः ही उभर आयेंगें। ऐसे में कोरोना संक्रमण का इस दौर को *कोरोना काल* की संज्ञा देना अतिशयोक्ति नहीं होगी और बिंब के रूप में इसका निरूपण भी मेरी समझ से सर्वोचित है।

आ.अनुपमा अग्रवाल जी: सहमत हूँ मैं भी आपके विचार से

आ. अभिलाषा जी: सहमत हूं भाई,कोरोना काल बिंब सशक्त है। इस काल में जो भी घटित हो रहा है,उसे जब हम दूसरे बिंब के रुप में लेते हैं तो वह दृश्य रूप में आह-वाह के पल निर्मित करता है,ऐसा कब हुआ इससे पहले की रुग्ण वाहिनी आई
और उसके बाद पूरे क्षेत्र को कन्टेंट मेंट क्षेत्र घोषित करके सेनेटाइज किया गया हो या किसी को अपने प्रिय का शव छूने न दिया गया हो या अतिथि के आने-जाने पर प्रतिबंध हो।मेरे ख्याल से इस बिंब से संबंधित हाइकु इस समय की घटना या दृश्य को मार्मिकता से चित्रित करते हैं।
काल कहने से लंबी समयावधि का बोध होता है पर उस काल में घटित घटना एक पल की अनुकृति होती है।जो उस कालखंड को सीमित कर देती है।मेरी मति के अनुसार।बाकी विद्वजन जैसा सोचे।

आ. अनुपमा अग्रवाल जी: बिलकुल सही कहा आपने दी👍👍

मेरा भी यही मानना है।आज तक ऐसा कुछ भी इससे पूर्व सुनने में नहीं आया  कि पूरे विश्व में लाॅकडाउन हुआ हो।क्या आज तक इतिहास में कभी मंदिर मस्जिद बंद हुए हैं?? और आज तक का इतिहास यदि उठाकर देखा जाये तो हवाई यात्रा, रेल यात्रा, बस कभी भी इस तरह से इतने दिनों के लिए बंद  नहीं हुए।मुंबई के लिये ये प्रसिद्ध है कि मुंबई कभी रुकती नहीं और यहाँ की लोकल रेल सेवा यहाँ की जीवन संचायिनी मानी जाती है जो हर वक्त दौड़ती ही रहती है।अबकी बार पहली बार इतने दिनों के लंबे समय के लिए बंद हुई है।न ही इससे पूर्व कभी इतनी बड़ी मात्रा में सैनेटाइज़र और मास्क का उपयोग वैश्विक स्तर पर देखने में आया।अतः मेरे विचार से भी ये एक सशक्त बिंब है जिसे पढ़ते ही आँखों के समक्ष इस पीड़ा से गुजर रही त्रासदी की याद ताज़ा हो जायेगी।

हाइकु विश्वविद्यालय

हाइबन लेखन की सरल विधि चर्चा से सीखें...

आदरणीय सौरभ प्रभात जी के शब्दों से शुरुआत:
*हाइबन लेखन कैसे करें?

मेें पढ़ें...

हाइकु लिखना सीख चुके साहित्यसेवियों के लिये हाइबन लेखन बहुत ही आसान विधा है। हाइकु और हाइबन में एक सूक्ष्म सा अंतर है और वही अंतर हाइबन को सरल भी बना देता है। हम जब हाइकु लिखते हैं, तो कई बार पाठक हमारे किसी बिंब को समझ नहीं पाता अथवा दोनों बिंबों के मध्य संबंध स्थापित नहीं कर पाता, परंतु हाइबन में हम अपने हाइकु का विश्लेषण पहले ही प्रस्तुत कर देते हैं, और इसके कारण पाठक को नीचे लिखे हाइकु को समझने में बहुत ही आसानी हो जाती है। विधान और नियम हाइकु की तरह ही हैं।

अब बात करते हैं कि इसे लिखें कैसे? तो जैसा कि हम जानते हैं कि हाइकु की तरह ही हाइबन भी प्रकृति मूलक विधा है, अतः हम जो भी लिखेंगें, कोशिश यही होनी चाहिये कि वो किसी प्राकृतिक दृश्य से प्रेरित हो, जिसे देख/पढ़ पाठक के मुख से स्वतः ही आह या वाह निकल जाये। परंतु चूँकि यहाँ 5-7-5 के क्रम में सजी कृति के साथ एक लेख/डायरी का अंश/संस्मरण भी प्रस्तुत करना होता है, अतः कोई ऐसा दृश्य चुनें जो सामान्यतः लोगों के आकर्षण का केन्द्र बिंदु हो। सबसे महत्वपूर्ण यही है कि आप ऐसे दृश्य का चुनाव करें जो सामान्य रूप से न देखे जा सकें, अपितु किसी खास स्थान अथवा खास परिस्तिथि/काल में ही दृष्टिगोचर हों। अब उस दृश्य के विषय का विश्लेषण करती यथार्थपरक पंक्तियों को एक छोटे लेख/संस्मरण का रूप देकर लिख लें। यहाँ एक अच्छी बात ये भी है कि इस लेख/संस्मरण को आकर्षक बनाने के लिये हमें यहाँ सभी प्रकार की उपमाओं और अलंकारों के प्रयोग की स्वतंत्रता है। अब अपने लेख/संस्मरण के आधार पर हमें एक हाइकु का सृजन करना है, जिसमें इसका सारतत्व समाहित हो (हाइकु लेखन के नियमों को ध्यान में रखते हुये) और बस तैयार हो गया आपका हाइबन।

इसका एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ, जिससे आपको समझने में सहूलियत हो -

*हाइबन*

        उत्तराखंड के चमोली जिले में 16,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित, रूपकुंड झील सचमुच सुंदर हिमालय के बीच स्थित एक आकर्षक झील है। इसे अक्सर मिस्ट्री लेक यानि रहस्यमयी झील कहा जाता है जिसका कारण है कि यहाँ पानी से ज्यादा मानव कंकाल मिलते हैं। यहाँ 600 से अधिक मानव कंकाल खोजे गये हैं। रुपकुंड झील हिमालय के ग्लेशियरों के गर्मियों में पिघलने से उत्तराखंड के पहाड़ों में बनने वाली छोटी सी झील है। जिसके चारों ओर ऊँचे-ऊँचे बर्फ के ग्लेशियर हैं। यहाँ तक पहुँचने का रास्ता बेहद दुर्गम है, इसलिए यह जगह एडवेंचर ट्रैकिंग करने वालों की पसंदीदा जगह है। यहाँ पर गर्मियों में बर्फ पिघलने के साथ ही कहीं पर भी नरकंकाल दिखाई देना आम बात है। यहाँ तक कि झील के अंदर देखने पर भी तलहटी में भी नरकंकाल पड़े दिखाई दे जाते हैं। यह दृश्य अच्छे अच्छों को दाँतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर कर देता है। हाइबन के रूप में इसे ऐसे देख सकते हैं -

*ग्रीष्म मध्याह्न*~
*रुपकुंड तल में*
*नर कंकाल*

*-सौरभ प्रभात*
मुजफ्फरपुर, बिहार

आदरणीया अनुपमा अग्रवाल जी के शब्दों से: 'हाइबन'- ये नाम सुनते ही एक प्रश्न मन में कौंधता है सबसे पहले ," ये क्या है?"
तो सबसे पहले यदि हम इसके शाब्दिक स्वरूप की चर्चा करें तो ये एक जापानी भाषा का शब्द है, जो दो शब्दों को जोड़ कर बना है 'हाइ' और 'बन'- 'हाइ' का अर्थ होता है 'काव्य' और 'बन' का अर्थ होता है 'गद्य',अर्थात् हाइबन गद्य एवं काव्य के मिश्रण को कहते हैं।
हाइबन लेखन का आरंभ भी कवि बाशो ने 1690 में एक यात्रा संस्मरण के रूप में किया था,जब उन्होंने अपनी एक यात्रा के अनुभव को अपने एक शिष्य के साथ साझा किया और उसके अंत में एक हाइकु लिख दिया,और इस तरह से इस विधा का जन्म हुआ।
हाइकु जहाँ पाठक को कल्पना की उड़ान भरने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, वहीं हाइबन लेखक को।
हाइबन लेखन में रचनाकार अपनी कल्पना की उड़ान स्वप्न लोक तक भर सकता है,अर्थात् अपने स्वप्न को भी साकार रूप प्रदान कर सकता है। हाइबन में लेखक को अलंकारों के प्रयोग की भी छूट है।हाइबन में एक एक शब्द का प्रयोग बहुत सोचकर किया जाना चाहिये और अंतl में लिखा जाने वाला हाइकु आपके गद्यांश को पूर्णता प्रदान करता उसका ही विस्तार हो,इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है।
हाइबन का गद्यांश बहुत अधिक छोटा या बहुत अधिक बड़ा नहीं होना चाहिये। लगभग 100 से 200/250 शब्दों तक की ही शब्द सीमा होनी चाहिये।
हाइबन भी एक प्रकृतिमूलक विधा है,अतः इसमें हमें प्रकृति के ऐसे अनसुलझे गूढ़ रहस्यों के विषय में जानने को मिलता है जिनसे हम अभी तक अनभिज्ञ थे।
यदि संक्षेप में कहूँ तो हाइबन एक तरह से हाइकु की विवेचना  है।
आइये, इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं----

नॉर्वे के उत्तरी इलाके में सूर्यास्त के समय कुछ ऐसा नज़ारा देखने को मिलता है कि देखने वाला दाँतों तले उंगली दबा ले। प्रकाश की  मानो आँखमिचौली सी चलती है यहाँ। ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई चित्रकार अपनी कूंचियों से रंग बिखेर रहा हो. दरअसल ये एक ऐसी प्राकृतिक  प्रक्रिया है जिसमें लाल,पीले, नीले,नारंगी, हरे और बैंगनी रंगों का अद्भुत समागम चारों ओर देखने को मिलता है. जब लाल, पीले रंगों के बीच जल में नीले पर्वत का बिंब दिखाई देता है तो अचरज से आँखें फटी की फटी रह जाती हैं, प्रकृति की इस छटा को देखकर।प्रकृति का यह अद्भुत दृश्य अधिकांशतः सर्दियों की शाम में देखने को मिलता है जब चुंबकीय गोले के ऊर्जा कण पृथ्वी के वातावरण से टकराते हैं।इसे हाइबन में यूँ देख सकते हैं--

शिशिर सांझ~
लाल पीले जल में
नीला पर्वत

हाइबनकारा-
अनुपमा अग्रवाल

आदरणीया दीपिका पाण्डेय जी कहती हैं:
*|| हाइबन पद्धति ||*

     हाइबन,बहुत ही रोचक व ज्ञानवर्धक विधा है।यह एक ऐसा लेख है जिसमें आप प्रकृति में घटित किसी अविस्मरणीय घटना,विचारों एवम् अपने अनुभव को डेली डायरी,संस्मरण या लघुकथा का स्वरूप देते हैं।लेख को हमें सभी अलंकारो और बिंबों से सुसज्जित करने की छूट प्रदान होती है ताकि यह लेख और भी आकर्षक लगे।फिर संपूर्ण लेख के सार तत्व को हाइकु में पिरोया जाता है । हाइकु के नियम इस प्रकार है.....

1. दो वाक्य, दो स्पष्ट बिम्ब हो।
2. किसी एक बिम्ब में प्राकृतिक का होना अनिवार्य है।
3. दो वाक्य, 5 में विषय और 12 में बिम्ब वर्णन हो सकता है।
4. दो वाक्य, विरोधाभास भी हो सकते हैं।
5. स्पष्ट तुलनात्मक न हो।
6. कल्पना व मानवीयकरण न हो ।
7. वर्तमान काल पर हो।
8. एक पल की अनुकृति, फोटोक्लिक हो।
9. कटमार्क (दो वाक्यों का विभाजन) चिन्ह हो।
10. दो वाक्य ऐसे रचे जाएँ जो एक दूसरे के पूरक न होकर कारण और फल न बने।
11. रचना में बिम्ब या शब्दों का दोहराव न हो।
12. तुकबंदी से बचें।
13. 5 वाले हिस्से में क्रिया/क्रियापद और विशेषण न हो।
14. 12 वाले हिस्से में एक वाक्य हो।
15. बिना बिम्ब के केवल वर्तनी न हो।
16. पंक्तियाँ स्वतंत्र न हों।
17. विधा प्रकृति मूलक है, किसी धर्म या व्यक्ति विशेष न हो।
      ****************

      *निःसंदेह प्रकृति सौंदर्य तथा उसके विभिन्न स्वरूपों का हमारी प्रथाओं, मान्यताओं से अमिट संबंध है। जिसके रहस्यों को अपने हाइबन के माध्यम से उजागर करते हुए हम सभी समाज को एक नई सकारात्मक दिशा में ले जाते हैं।*
तो आइये एक उदाहरण के माध्यम से हम हाइबन समझने का प्रयास करते हैं।

उदाहरण...

1) *हाइबन*

          हरेला, पहाड़नों का एक जाना माना प्रकृतिक पर्व है।जिसे हार्दिक उल्लासपूर्वक मनाया जाता है।हरेला को श्रावण के दस पंद्रह दिन पहले अर्थात आषाढ़ में बोया जाता है।इसे बाँस की टोकरी इत्यादि पात्र में अंदर से लीप कर उसमें गेहूँ,जौ,धान,उड़द इत्यादि सात प्रकार के बीजों को बोया जाता है और इसे पवित्र व साफ जगह की दृष्टि को ध्यान में रखकर मंदिर में भी रखा जाता है और पवित्रता को ध्यान में रख कर ही हरेला लकड़़ी से ही गोड़ा जाता है। इन बीजों को उगाने के लिए नियमित पानी दिया जाता है। इसका ऐसा करने का वैज्ञानिक कारण यह भी है कि हमारे पूर्वज जिन्हें बखूबी खेतीबाड़ी का ज्ञान था वे यह पता लगाने का प्रयास करते थे कि जो तात्कालिक ऋतु है क्या वह फसल उगाने के लिये उपयोगी है या नहीं? एक तरह से हम कह सकते हैं कि यह एक विशेष प्रकार का प्रयोग था जिसे आज भी हमारे देश भारत के पहाड़ी इलाकों में देखा जा सकता है और तब से ही यह परंपरा चली आ रही है। श्रावण के आते आते जब ये हरेला बढ़ जाते हैं तो उन्हें काट लिया जाता है और चहुँओर खुशी की लहर दौड़ पड़ती है सभी आश्वस्त हो जाते हैं कि अब फसलें उगाई जा सकती है।इसी खुशी में घर के बड़े,कृषक आदि प्रकृति की पूजा करते हैं, उसे धन्यवाद देते हुए अपने कान पर हरेला लगाते हैं और फिर बुआई का कार्य आरंभ कर देते हैं।सभी लोग हरेली गीत गाते हैं। गीतों के माध्यम से धान के महत्व का बखान करते हुए प्रकृति से आह्वान करतें हैं कि इस वर्ष इतना धान हो जाए कि जिसे सिलबट्टे तक में पीसना पड़े(एक व्यंग्य)। घर में तरह तरह के पकवान बनाते हैं।हरेला का यह पर्व १५-१६ जुलाई को बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।इस पर्व में सार्वजनिक रूप से छुट्टी की भी घोषणा की जाती है।निःसंदेह उत्तराखंड की यह संस्कृति पर्यावरण संरक्षण का एक मूल हिस्सा है इसलिए ही यह अवकाश दिया जाता है ताकि अधिक से अधिक लोग पौधरोपण कर सके।प्रकृति प्रेम को सही मायने में उजागर कर सकें।हरेला पर्व वर्षा ऋतु और श्रावण की शुरुआत का प्रतीक भी माना जाता है और इस प्रकृति परंपरा को अक्षुण्य बनाए रखने के लिये ही बेटियों को ससुराल से मायके(मैत गृह) बुलाया जाता है ताकि यह परंपरा आगे भी बढ़ती रहे और लोग हमारे पूर्वजों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और प्रकृति के महत्व को समझ सके।इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं..

*आषाढ़ दिवा~*
*हरेला की गुड़ाई*
*मैतगृह में।*

    तो आइए एक अन्य हाइबन भी देखते हैं...

2) *हाइबन*

        कैलिफोर्निया स्थित एक योज़माइट नामक जलप्रपात है जिसे होर्सटेल के नाम से भी जाना जाता है और यही जलप्रपात फरवरी माह के सप्ताहांत तक आते आते नारंगी रूप में बदल जाता है।इसका मुख्य कारण फरवरी माह के अंत तक जब सूरज की किरणें सही कोण बनाते हुए झरने पर पड़ती है तो झरना नारंगी रंग में बदल जाता है।पर्यटक यह दृश्य देख आचंभित रह जाते हैं कि पानी के साथ साथ आग भी निकल रही है।इस कारण इसे आग का झरना भी कहा जाता है।तो इसे हम इस प्रकार से भी कह सकते हैं--

*अंतिम माघ*~
*जलप्रपात संग*
*नारंगी आभा।*

---दीपिका पाण्डेय

आदरणीया कुमकुम पुरोहित जी बताती हैं: *हाइबन लेखन की विधि*

हाइकु की व्याख्या को हम हाइबन का नाम  दे सकते है। अंतर बस इतना है कि हाईकु रचना को पढ़ने के बाद  पाठक स्वतंत्र होता है कि वह उस रचना  से क्या भाव  ग्रहण करता है ,पंरतु हाइबन रचना में  पाठक को भाव  ढूँढने की आवश्यकता ही नही पड़ती रचनाकार स्वयं ही प्रारंभ से अपनी रचना का विशलेषण करता चला जाता है,उसके मूल से लेकर अंत तक के सभी तथ्यों और रहस्यों का उजागर करते हुए उस रचना को इतना अधिक  परिष्कृत कर देता है कि पाठक के मन में  सहज ही एक उत्सुकता सी बनने लगती है कि वाह यह तो बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक रहस्य है।इस प्रकार से अंत में रचनाकार अपने विषय को पूर्ण  करता हुआ उसका सारतत्व  निचोड़कर 5 ,7,5 के क्रम में  संस्मरण, डायरी  या लघुकथा  में उसे हाइबन का रूप  देकर परोस देता है।जिसे पढ़कर न केवल उस विषय का ज्ञान, अपितु रोमांच की लहर सी अभिभूत होती चली जाती है।
   हाइबन विधा  की सबसे बड़ी  विशेषता ही यही है कि - हम पहले किसी भी रचना को पढ़कर उसकी व्याख्या या भाव को उजागर करते है पंरतु हाइबन विधा में  हम व्याख्या  को पढ़ने  के पश्चात अंत  मे उसके सारतत्व के रूप में उस रचना का   फोटोक्लिक हमारे  आखों के सामने दिखने लगता है।  इस प्रकार से रचनाकार न केवल अपनी रचना ही बल्कि अपने  अनुभव  प्रकृति के रहस्यों, तथ्यों ,किसी विशेष स्थान, रीति रिवाज आदि को अपने शब्दों में  पिरोकर उपमा और अलंकार  से सुसज्जित करके पाठक को परोसता है
इसको उदाहरण के रूप में  इस प्रकार भी समझा  जा सकता है-

हाइबन---
*हारिल या हरियाल पक्षी** जिसे yellow footed green pigeon भी कहते हैं । हरियाल पक्षी महाराष्ट्र का राजकीय पक्षी है।यह ट्रेरन फाॅनीकाॅप्टेरा(Treron phoenicoptera)  की प्रजाति का है।यह पहली बार भारतीय उपमहाद्वीप में देखने को मिला था।हारिल पक्षी श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल में भी पाया जाता है।हारिल पक्षी को पीपल और बरगद के फल बहुत प्रिय है,अतः यह इन्ही वृक्षों पर रहते है।हारिल एक  शाकाहारी और सामाजिक पक्षी है यह झुण्ड में  ही पाया जाता है। हारिल के विषय में मान्यता है कि यह पक्षी जमीन पर नही बैठता।अपनी प्यास बुझाने के लिए भी जमीन पर नही उतरता,फलों और पत्तों पे पड़े  ओस की बूंदों से अपनी प्यास बुझा लेता है।और यदि जमीन पर उतरता भी है तो अपने पंजों पर लकड़ी का टुकड़ा या तिनके को पकड़े हुए रहता है।इसी विशेषता के कारण हारिल  पक्षी का वर्णन धार्मिक और साहित्यक रचनाओं में  मिलता है जिसका उदाहरण महाकवि सूरदास ने अपने *सूरसागर* के पांचवे खण्ड में  इस प्रकार दिया है।
" *हमारे हरि हारिल की *लकरी।"*
अर्थात गोपियां श्री कृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को प्रकट करती हुई  कहती है कि जिस तरह से हारिल पक्षी एक लकड़ी का टुकड़ा हमेशा पकड़े रहता है और उसे विश्वास होता है कि वह लकड़ी का टुकड़ा उसे जमीन पर गिरने नही देगा ठीक उसी प्रकार श्री  कृष्ण भी हमारे  लिए  वही लकड़ी का टुकड़ा है जो हमें  कभी गिरने नही देंगे निराश नही करेगें ।
हाइबन में इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं-

*पीपल शाख~*
*हारिल चोंच पर*
*ओस की बूँद*

कुमकुम पुरोहित

आदरणीया गीतांजलि जी के अनुसार: *हाइबन लेखन की विधि*

वैसे तो हाइकु अपने आप में एक अनोखी विधा है जो मात्र १७ अक्षरों में एक चित्र अंकित कर जाती है मानस के पटल पर, किन्तु कई बार इन सीमित शब्दों में चित्रित दृश्य ऐसे होते हैं जो साधारण से हट कर होते हैं, और बिना सन्दर्भ के उन्हें समझ पाना पाठक के लिए सम्भव नहीं। ऐसे में कवि अपने शब्दों के माध्यम से उस संदर्भ से परिचित करवा दे तो ही बात बनती है। इस प्रकार की परिचय युक्त हाइकु को हाइबन कहा गया है।

#गीतांजलि

आदरणीया रुनू बरुवा जी के विचार:
आपकी बात से मैं सहमत हूँ। हाइबन कुछ ऐसा प्रतीत होता है जैसे आप चंद शब्दों में किसी घटना, इतिहास के पल अथवा दृश्य को लिख रहे है । गद्यांश में हाइबन के हाइकु का संक्षिप्त व्याख्या होता है जो पूर्ण होकर हाइबन बन जाता है ।


आदरणीय अनंत पुरोहित जी का: 

*एक विचार*

हाइबन और हाइकु दोनों में संरचनात्मक भेद कुछ भी नहीं है। ऐसे में क्या सभी हाइकु के साथ गद्यात्मक आलेख जोड़ देने से वह हाइबन बन जाएगी?

इस संदर्भ में विचार करने पर मेरा मत इस प्रकार है कि वह घटनाएँ या दृश्य जो सामान्य नहीं हैं; जो असाधारण प्रतीत होती हैं, असंभव प्रतीत होती हैं किंतु यथार्थ हैं उन्हें ही हाइबन में सम्मिलित करना चाहिए। अर्थात जब हम गद्यात्मक अंश को हटा दें तो वह एक स्वतंत्र हाइकु के रूप में नियमानुसार होने पर भी अविश्वसनीय लगे। चूँकि हाइकु में अविश्वसनीय घटनाओं की मान्यता नहीं है तब वह हाइकु नहीं रह जाएगा। गद्य के बिना उसका मूल्य न रह जाए।

तभी उस हाइबन के गद्य का महत्व बचेगा जो कि उस अविश्वसनीय घटना की पुष्टि करेगा कि यह अविश्वसनीय घटना है जरूर किंतु यह घटित हो चुकी है।

आदरणीय सौरभ प्रभात जी: आपके संदर्भ से शत प्रतिशत सहमत हूँ आदरणीय।

यदि बिना गद्य के ही कृति को समझा जा सके तो फिर हाइबन की आवश्यकता ही क्या है? सामान्य दृश्याें को संजोने के लिये हाइकु नामक विधा पहले से ही मौजूद है। नई विधा का सृजन तभी रोचक है सकता है, जब उसमें स्वयं की कोई खास विशेषता समाहित हो।

निश्चित तौर पर हाइबन सृजन की उत्पत्ति का मूल कारण ही ऐसे बिंबों का निरुपण है, जिसे बिना गद्य भाग के अविश्वसनीय तथा अकल्पनीय माना जाए।

आदरणीया संगीता गोविल जी के प्रश्न: दृश्य की उत्पत्ति कैसे हो? इस तरह के दृश्य तो कम ही मिलेंगे ।

आदरणीय सौरभ प्रभात जी: यह संसार तो ऐसे आश्चर्यजनक दृश्याें से भरा पड़ा है आ०, बस पैनी नजरों से ढूँढ़ने की जरूरत है।

 हर पल हर क्षण इस संसार में ऐसे दृश्य उत्पन्न होते ही रहते हैं, जो सामान्य से पृथक मानव को अचंभित कर जाते हैं। ज्ञान चक्षु को खुला रखें और बिंब स्वयं ही उपस्थित हो जायेंगें।

आ.अनुपमा अग्रवाल जी के मतः जी बिलकुल सहमत हूँ आपकी बात से।यदि हर हाइकु को हाइबन ही बनाना है तो दो अलग विधाओं के अस्तित्व का औचित्य ही क्या बनता है।

आदरणीया पाखी जी: नमस्कार सर, आपका आशय यह है कि अद्भुत ,अकल्पनीय घटनाक्रम को गद्य में ढाला जाए?

हाइकु और हाइबन का मूल अंतर शायद यही है कि एक कल्पना को अस्वीकार करता है और दूसरा कल्पना को स्वीकार !

आ. गीतांजलि जी: पूर्णतया सहमत 👍🏼

 मुझे हाइबन विधा बहुत अच्छी लगी, मानो हाइकु में प्राण फूंक दिये हों।

आदरणीय अनंत पुरोहित जी का कथन: नहीं कल्पना नहीं, अजीबोगरीब घटनाएँ संसार में होते रहती हैं जो सत्य हैं कल्पना नहीं परंतु यदा कदा होती हैं, एकबारगी विश्वास नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है

आदरणीया पूजा जी: एक से बढकर एक शानदार उदाहरण सार्गर्भित आकर्षक व्याख्या सहित ।आप सभी को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।

आदरणीया जयश्री पंडा जी: मैं अनंत की बातों से बिल्कुल सहमत हूंँ कि हाईबन एक ऐसी घटना से संबंध रखता है जो बिल्कुल सत्य हो परंतु सुनने में अविश्वसनीय लगता हो।

आदरणीया अनुराधा चौहान जी: जी मैं भी उनकी बात से सहमत हूँ

आदरणीया दीपिका पाण्डेय जी अनुसार:  मैं सहमत हूँ आदरणीय आपकी बातों से।

आ० मेरे विचार से हाइकु या हाइबन कोई भी कल्पना को स्वीकार नहीं करता है।हाँ,वो बात अलग है कि हम हाइबन में अपनी बातों को अलंकारों,बिंबो आदि से अलंकृत करके अपनी बातों को रुचिकर ढंग से पाठक के समक्ष प्रेषित कर सकते हैं ताकि वह देखने में और भी रोचक प्रतीत हो।

आदरणीया डाँँ. रुनू बरुवा जी कहती हैं: हाइकु और हाइबन में संरचनात्मक भेद नहीं है फिर भी दोनों की प्रकृति में भेद है। जहां हाइकु दो बिंब पर आधारित होती है वहीं हाइबन में कुछ तत्व और जुड़ जाते है। आप जब भ्रमण पर निकलते है तो अद्भुत,  अविश्वसनीय और इतिहास से जुड़ी बहुत सारी बातों से रूबरू होते है । ऐसी  बातों को हाइकु के नियम अनुसार लिखना होता है परन्तु यहां जो लिखा जाते है उसे पूर्णता गद्यांश ही देता है । आश्चर्यजनक घटनाए घटती रहती है  अतः उन पर और प्रकृति के अनुत्तरित प्रश्न भरे स्थानों पर हाइबन लिखी जा सकती है क्योंकि गद्यांश इसे रोचक बना देते है और पाठक की उत्सुकता बनी रहती है । हाइकु में जैसे आप के मुँह से 'आह' और 'वाह' निकल जाती है वैसे ही हाइबन आप के मुँह से 'अद्भुत' और 'लाजवाब ' बुलवा देगा । यह मेरे विचार है।

--- डाॅ. रुनू बरुवा 'रागिनी'


हाइकु विश्वविद्यालय 

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